Kachhi Sadak
कच्ची सड़क - अमृता प्रीतम कच्ची सड़क उठती जवानी में किस तरह एक कंपन किसी के अहसास में उतर जाता है कि पैरों तले से विश्वास की ज़मीन खो जाती है– यही बहक गए बरसों के धागे इस कहानी में लिपटते भी हैं, मन-बदन को सालते भी हैं, और हाथ की पकड़ में आते भी हैं– ऐसे–जैसे कोई खिड़की के शीशे को नाखूनों से खुरचता हो...