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Shahryar Suno
Gulzar
Author Gulzar
Publisher Bhartiya Jnanpith
ISBN 9788126340682
No. Of Pages 200
Edition 2012
Format Hardbound
Language Hindi
Price रु 220.00
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Description

Shaharyar Suno by Gulzar

शहरयार सुनो
गुलजार

खुरदरी सख्त बंजर ज़मीनो मे क्या बोइये औऱ क्या काटिये। 
आँख की ओस के चन्द कतरो से क्या इन जमीनो को सैराब कर पाओगे,
मै नक्का्द नही ना ही माहिरे फन या जुबान और ग्रामर का माहिर 
मै महज एक शहरयार का मद्दाह औऱ उनकी शायरी को महसूस करने वाला शायर हुँ।

शहरयार उमूमन गजल ही सुनते है। किसी महफिल मे हो या मुशायरे मे मगर मुझे उनका लहजा हमेशा नज्म़ का लगता है बात सिर्फ उतनी नही होती, जितनी वो एक शेर मे बन्द कर देते है। थोडी देर वही रुको तो हर शेर के पीछे एक नज्म़ खुलने लगती है। तुम्हारे शहर मे कुछ भी हुआ नही है क्या कि तुमने चीखो को सचमुच सुना नही है? क्या इस शेर के पीछे की नज्म़ खोलो तो एक और शेर सुनाई देता है तमाम खल्के खुदा उस जगह रुकी क्यो है यहाँ रात का नही क्या रुकिये फिर चलिये लहूलुहान सभी कर रहे है। सूरज को किसी को खौफ यहाँ रात का नही क्या तमाम शेर फिर से पढ जाइये और बताइये ये नज्म नही है क्या?

शहरयार अपनी गजलो के लिये जाने जाते है। मेरा ख्याल है शायद इसलिये कि उनकी गजल का शेर सिर्फ एक उध्दरण बन कर रुक नही जाता चलता रहता है एक तसलसुल है बयान मे इखत्सार और लहजे की नर्मी उनका खास अन्दाज है सारा कलाम पढ जाओ कही गुस्से की ऊँची आवाज सुनाई नही देती।

जख्म है दर्द है लेकिन चीखते नही,
सन्नाटो से भरी बोतले बेवने वाले,
मेरी खिडकी के नीचे फिर खडे हुए है 
और आवाजे लगा रहे है 
बिस्तर की शिकनो से निकलूँ नीचे जाऊँ 
उनसे पूछूँ मेरी रुसवाई से क्या मिलता है?

पूरी नज्म एक जुमले की तरह बहती है और इसका दूसरा जुमला है मेरे पास कोई भी कहने वाली बात नही है सुनने की तकत भी कब का गँवा चुका हूँ। नज्म हो या गजल हो गुफ्तगू का ये अन्दाज सरासर उनका अपना है बन्दिशे इतनो आसान है कि कोशिश करो तो लिखना मुश्किल है बात कहने मे कोई प्रयास नजर नही आता लगता सोच रहे है तुझसे मिलने की तुझको पाने की कोई तदबीर सूझी ही नही एक मंजिल पे रुक गयी है हयात ये जर्मी जैने घूमती ही नही अजीब चीज है ये वक्त जिसको कहते है कि आने पाता नही और बीत जाता है होठो से नही लिखी चुपके से इधर आ जाओ हुवस सिवा कोई नही एतराफन एक एक लम्बी साँस की नज्मे है। इखत्सार खुसूसियत है पाँच सात नौ मिसरो मे मज्म पूरी हो जाती है। बात सिर्फ इतनी ही कहते है जितनी तास्सुर दे जाये बात को अफसाना नही बना देते शुरू गे लम्बी नज्मे मिलती है जैसे उनका कद ऊचा होता गया नज्मे छोटी होती गयी।

सारा काम एक बार फिर दोहराया तो एक औऱ बात का एहसास हुआ कोई शहर नजर नही आता और ना ही देहात नजर आता है। देहात है मगर कही दाग धब्बे की तरह मगर छोटे शहर या पुराने शहरो की तहजीब महकती है बयान मे भी मौजूआत मे भी मिडल क्लाम के दर्द धडकते है जिन्हे सहलाने मे उतना ही मजा आता है जितना भरते हुए जख्मो पर हाथ फेरने का मजा आता है रात दिन सूरज प्यास पानी एहसास हर बार उनकी शक्ले बदल देता है रात कभी सहरा हो जाती है कभी दरिया। और फिर दिन कभी दरिया।

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