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Aadhi Raat Ko Aazadi
Lary Collins,Dominique Lapier
Author Lary Collins,Dominique Lapier
Publisher Hind Pocket Books
ISBN 9788121613569
No. Of Pages 496
Edition 2016
Format Paperback
Language Hindi
Price रु 315.00
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Description

Aadhi Raat Ko Aazadi (Hindi Translation of Freedom at Midnight)

 

By:Dominique Lapier,Larry Collins

 

आज़ादी आधी रातको


डोमिनीक लापिएर /लेरी कोलिन्स


विश्वयुद्ध जीतने की कीमत क्या होती है या चुकानी पड़ती है?. सवाल यह भी हो सकता है आजादी की कीमत क्या होती है?. अगर आप पकड़ने की कोशिश करें तो विश्व विख्यात लेखक और पत्रकार डोमिनीक लापिएर और लैरी कॉलिन्स की किताब ‘आजादी आधी रात को’ में इन दोनों सवालों के जवाब मिल जाएंगे.

भारत की आजादी दरअसल द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन की खस्ताहाल स्थिति से उपजी थी. ‘ब्रिटेन मानवता के सबसे भयानक युद्ध में विश्व विजयी रहा था, लेकिन विजय क्या किसी को बिना कीमत चुकाए मिलती है. ब्रिटेन के उद्योग धंधे चौपट हो गए, उसका खजाना खाली हो गया था और उसकी मुद्रा पौंड अमेरिका और कनाडा के इंजेक्शनों के सहारे सांस ले रही थी. ऐसी ही स्थिति में ब्रिटेन ने माउंटबेटन को भारत से हाथ खींच लेने का सौंपा था.’ ब्रिटेन ने विश्वयुद्ध जीतने की कीमत इस तरह चुकाई.

लुई माउंटबेटन ‘आजादी आधी रात को’ के नायक हैं और पूरी कहानी उन्हीं के इर्द गिर्द घूमती है आखिरी के कुछ पाठों को छोड़कर जहां सांप्रदायिक बदले की भावना में रंगे बरछों को गांधी शांत रहने के लिए उपदेश देते हैं. किताब के प्राक्कथन में ही लापिएर और कॉलिन्स लिखते हैं कि ‘गुजरती हुई हर सदी में कुछ लम्हें ऐसे होते हैं, जिनकी व्याखा बार-बार की जाती है.’ भारत और पाकिस्तान के निर्माण के लम्हें भी ऐसे ही है. आपने इस बंटवारे पर तमाम किताबें पढ़ी होंगी, लेकिन जिस तराजू में पसंगा नहीं होता है वहां नाप तौल में डंडी मारे जाने की गुंजाइंश प्रबल होती है. 'आजादी आधी रात को' में माउंटबेटन पसंगे के रूप में मौजूद है.

‘आजादी आधी रात को’ लापिएर और कॉलिन्स की विश्व प्रसिद्ध किताब 'फ्रीडम एट मिडनाइट' का हिंदी अनुवाद है. इसका हिंदी रूपान्तरण और संपादन किया है तेजपाल सिंह धामा ने. किताब का पहला अंग्रेजी संस्करण 1975 में प्रकाशित हुआ. हिंदी में हिंद पॉकेट बुक्स ने 2009 में पहला संस्करण दर्शाया हुआ है. उसके बाद यह पांच बार रिप्रिंट हो चुकी है. रिचर्ड एटनबरो की ऐतिहासिक फिल्म ‘गांधी’ को सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए अकादमी अवार्ड दिलाने में सफल साबित हुई और स्क्रीन प्ले राइटर जॉन ब्रिले को भी इसने प्रेरित किया.

किताब की लेखन शैली शानदार है. यह आपको बांधे रखती है और अगला पृष्ठ पलटने को मजबूर करती है. मैं कभी लंदन नहीं गया हूं लेकिन पहले ही पाठ में जब लापिएर और कॉलिन्स, माउंटबेटन और एटली की मुलाकात की कहानी सुनाते है तो लगता है जैसे अंर्तमन में ‘मैं कोई चित्रपट देख रहा हूं.’

इस किताब की समीक्षा में पेरिस के अखबार ‘ली मोन्दे’ ने लिखा था, ‘ऐसी किताब जो कभी दूसरी नहीं हो सकती.’ मुझे लगता है इस किताब के बारे में यह बिल्कुल सटीक टिप्पणी थी. दोनों लेखकों की साझा कलम ने बहुत बारीकी से इतिहास के हर पहलू, राज और साजिशों का वास्तविक व प्रामाणिक ब्यौरा प्रस्तुत किया है.

माउंटबेटन की मुख्य भूमिका वाली यह किताब हमें बताती है कि अंतिम वायसराय का रुझान बंटवारे के खिलाफ था और अगर उन्हें इस बात का पता चल गया होता कि जिन्ना ‘सिर्फ कुछ महीनों के मेहमान’ है तो माउंटबेटन बंटवारे के बजाय जिन्ना की मौत तक इंतजार करते. हालांकि ये बात सिर्फ जिन्ना के हिंदू डॉक्टर को पता थी, जिसने अपने मरीज के साथ विश्वासघात नहीं किया. हालांकि इस बात का किताब में जिक्र नहीं मिलता कि जिन्ना ने उसे कभी खास निर्देश दिया हो, इसे छुपाए रखने को लेकर.

लापिएर और कॉलिन्स ने बेहद सतर्कता के साथ तथ्यों को रखा है. नेहरू और एडविना के रिश्तों को उन्होंने गहरी आत्मीयता वाला बताया है और प्रेम संबंधों को अफवाह करार दिया है. लेकिन वे मानते हैं कि नेहरू और एडविना में एक खास तरह का लगाव था. नेहरू की बहन वी.एल. पंडित ने लेखकद्वय को बताया था कि ‘नेहरू और एडविना के बीच किसी तरह का कोई रिश्ता नहीं रहा था, क्योंकि शादी के बाद उनके भाई की कामनाएं कम हो गईं थीं.’

एडविना और नेहरू के रिश्ते से कहीं ज्यादा यह बात चौंकाती है कि ‘आजादी मिलने के मुश्किल से तीन सप्ताह बाद ही नेहरू और पटेल ने भारत का शासन एक बार फिर, अंतिम बार और बहुत थोड़े समय के लिए ही सही, एक अंग्रेज को सौंप दिया था.’ ये अंग्रेज माउंटबेटन थे, और बंटवारे के बाद फैली हिंसा को संभाल पाने में भारतीय नेतृत्व खुद को असक्षम पा रहा था. हालांकि ये बात तीनों नेताओं तक सीमित थीं.

पाठकों को यह जानकार हैरानी होगी कि माउंटबेटन अंतिम वायसराय के रूप में भारत नहीं आना चाहते थे. माउंटबेटन को इस बात का पता नहीं था कि ‘उन्हें भारत भेजने का सुझाव एटली को उनके निकटतम सहयोगी सर स्टैफर्ड क्रिप्स ने दिया था. मेनन ने क्रिप्स और नेहरू के सामने यह सुझाव रखा था कि जब तक वेवल वायसराय रहेंगे कांग्रेस को सफलता नहीं मिल सकती. क्रिप्स के यह पूछने पर कि किसे भेजा जाए, उन्होंने माउंटबेटन का नाम लिया था.

माउंटबेटन गांधी से बहुत प्रभावित थे और उन्हें बहुत सम्मान देते थे. लेकिन बंटवारे के बाद मचे कत्लेआम को लेकर स्थितियां इतनी बिगड़ चुकी थीं कि दिल्ली की सड़कों पर ‘गांधी को मर जाने दो’ के नारे लगते. लोगों के लिए गांधी अब किसी काम के नहीं थे. लेकिन बंटवारे के बाद अस्थिर भारत को स्थिर करने में गांधी को अभी एक बड़ी भूमिका अदा करनी थी.

ऐसे बहुत सारे तथ्य और जानकारियां इस किताब को क्लासिक बनाती हैं. जिसे हमेशा हमेशा पढ़ा जाएगा. ब्रिटेन को विश्व युद्ध की कीमत भारत को आजाद करके चुकानी पड़ी, तो भारत ने आजादी की कीमत गांधी को खोकर चुकाई.

डोमिनीक लापिएर और लैरी कॉलिंस के शब्दों में...
‘गांधी ने बलिदान देकर वह अमर लक्ष्य पा लिया था, जिसके लिए वह जीवन के अंतिम कुछ महीनों में निरंतर प्रयास करते रहे थे. उनके शहीद होने से देश भर के शहरों औऱ गांवों में पड़ोसी के हाथों पड़ोसी की निर्मम सांप्रदायिक हिंसा का सिलसिला सदा के लिए बंद हो गया.’

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